ज़र्द पत्तों को हवा साथ लिए फिरती है दम-गुज़ीदा हैं क़ज़ा साथ लिए फिरती है राख हो जाए न फ़ाक़ों के जहन्नम में हयात बे-कसी अपनी चिता साथ लिए फिरती है माँ के होंटों से थी निकली दम-ए-रुख़्सत जो दुआ मुझ को अब तक वो दुआ साथ लिए फिरती है आस की राख में ढूँडें नई उम्मीद कोई ज़िंदगी बीम-ओ-रजा साथ लिए फिरती है सच का है क़हत यहाँ झूट का बाज़ार है गर्म अब हमें मौज-ए-फ़ना साथ लिए फिरती है एक पत्थर है बहुत झील के सन्नाटे को ख़ामुशी कोह-ए-निदा साथ लिए फिरती है अपने साए से गुरेज़ाँ नहीं इक तू ही 'रबाब' शहर भर को ये वबा साथ लिए फिरती है