ज़ात से ता-ब-हद-ए-ज़ात गुज़र जाऊँ मैं By Ghazal << ज़िक्र किस का है सर-ए-दार... ये क़ुर्ब-ए-ख़ास अजब है क... >> ज़ात से ता-ब-हद-ए-ज़ात गुज़र जाऊँ मैं मुझ को इतना न समेटो कि बिखर जाऊँ मैं एक चेहरे में कहाँ हूँ जो निखर जाऊँ मैं लोग आईना उठाएँ तो उभर जाऊँ मैं दुश्मनों से ख़लिश-ए-ज़ीस्त तो मिल जाती है दोस्तों तक ही रहे बात तो मर जाऊँ मैं Share on: