ज़िक्र तेरा अगर नहीं आता चैन शाम-ओ-सहर नहीं आता तू है मौजूद हर जगह लेकिन क्यों किसी को नज़र नहीं आता जान ले वक़्त की हक़ीक़त को वक़्त फिर लौट कर नहीं आता अब भी हैं उस की मुंतज़िर नज़रें क्यों वो जान-ए-जिगर नहीं आता तेरी सूरत बसी है आँखों में कोई दूजा नज़र नहीं आता हम ने ऐसे शजर भी देखे हैं जिन पे कोई समर नहीं आता अपना अपना लिखा मुक़द्दर है हाथ में सब के ज़र नहीं आता कर के हम भी ज़रा ये देखेंगे रास कैसे सफ़र नहीं आता जाने किस हाल में वो है अब के कोई ले कर ख़बर नहीं आता शायरी भी है इक हुनर 'रामिश' सब को अब ये हुनर नहीं आता