ज़िंदगी जब भी मिला करती है जाने क्यों मुझ पे हँसा करती है हाए क्या शख़्स था मरने वाला ज़िंदगी याद किया करती है मुस्कुराता है कहीं और वो शख़्स रौशनी दिल में हुआ करती है हम बुज़ुर्गान-ए-अदब हैं हम से ज़िंदगी झुक के मिला करती है जब से बिछड़ा है वो सर-ता-पा ग़ज़ल ज़िंदगी शे'र कहा करती है ज़िंदगी भी तिरी चाहत की तरह एक ही बार मिला करती है ज़िंदगी इक तो मिली मुझ को उधार वो भी बीमार रहा करती है क्या मोहज़्ज़ब है हवा भी अब के सर से दस्तार जुदा करती है