ज़िंदगी ज़र्द ज़र्द चेहरों में भीक डाली गई है कासों में हम से क्या पूछते हो रंग-ए-जहाँ हम तो ज़िंदों में हैं न मुर्दों में दिल-ए-मासूम टूट टूट गया हम सजे रह गए दूकानों में सोए होते हैं अपने घर में हम पाए जाते हैं उन की गलियों में अब किताबों में भी नहीं मिलता प्यार होता था पहले लोगों में या-इलाही बस उस की एक झलक जिस की ख़ुशबू है मेरी साँसों में छान देखी है मशरिक़ैन की ख़ाक आन बैठा हूँ तेरे क़दमों में 'नाज़िश' ऐसा क़लंदराना मिज़ाज कोई होगा तो होगा सदियों में