ज़ुहूर-ए-नूर से दिल आफ़्ताब होता है विसाल-ए-क़ुर्ब से बंदा ख़ुदा नहीं होता ये हम ने माना कि इक ख़ाक-ओ-ख़ूँ का पुतला है मगर वो चाहने वालों को क्या नहीं होता हसीन ख़ून बहाते हैं आशिक़ों का यूँ दयार-ए-इश्क़ में क्या ख़ूँ-बहा नहीं होता तो खटकटाते हैं दर बारगाह-ए-मौला का जब और कोई हमें आसरा नहीं होता यहाँ तो अपनी लगन ही का कुल करिश्मा है रह-ए-ख़ुदा में कोई रहनुमा नहीं होता हज़ारों हाफ़िज़-ओ-ख़य्याम हैं ज़माने में कि बे-मिसाल सिवाए ख़ुदा नहीं होता किसी के काम न आए जो फ़र्ज़ अदा न करे वो और कुछ भी हो मर्द-ए-ख़ुदा नहीं होता अगर क़ुबूल करें उस की वहदत-ए-मुतलक़ तो जब्र-ओ-क़द्र कोई मसअला नहीं होता वो शक्ल बदले कि आँखों से हो रहे ओझल किसी वजूद का ज़र्रा फ़ना नहीं होता यहीं कहीं वो ज़मान-ओ-मकाँ में पिन्हाँ है कि अपनी सन' से सानेअ' जुदा नहीं होता