अज़ीम मुंसिफ़!! हमारी क़िस्मत की हर अदालत का फ़ैसला है कि अपनी बे-हुरमती की फ़रमान ले के जाएँ तो अपना कोई गवाह लाएँ गवाह रिश्तों के मोहतरम कुंडलियों में बैठे संपोलियों का गवाह ऐसी हवेलियों का कि जिन में क़ानून पावँ धरने से कपकपाए कुँवारी चीख़ें बिलक बिलक के सदाएँ करती इन ही अंधेरों में डूब जाएँ मगर वो इस बे बसी का अपनी न एक कोई गवाह पाएँ कहाँ से लाएँ गवाह इन भेड़ियों का जो अपनी शहवतों पर इबादतों की मुक़द्दस-ओ-मोहतरम ऐबाएं सजाए बैठे हों ताक में सौंधे कच्चे जिस्मों के जिन के बाजरों के ऊद में सिसकियाँ सुलगती हों रात को और दिन तिलावत के लहन से जगमगाए जाएँ ये मोहतरम भेड़िये हम उन की ख़बासतों का गवाह लाएँ कहाँ से लाएँ हमें कोई ऐसा मोजज़ा दे कि गूँगी अंधी सियाह शब को गवाहियों का हुनर सिखाएँ ख़बीर है तो बसीर है तो तू जानता है कि आज तक मौत के अलावा कोई न अपना गवाह पाया हमीं पे टूटीं क़यामतें भी हमीं ने ज़िल्लत का बार उठाया किताब-ए-इंसाफ़ के मुसन्निफ़ तिरे सहीफ़े तो कह रहे हैं कि सारे इंसान ज़ी-शरफ़ हैं फ़हीम हैं बालिग़-उन-नज़र हैं सब अपनी अपनी किताब की रू से अपने बारे में बा-ख़बर हैं तो फिर हमारे ही पुश्त पर हाथ क्यूँ बंधे हैं हमारी ही सब गवाहियों पर ये बे-यक़ीनी की मोहर क्यूँ है सभी सहीफ़ों में ये लिखा है तिरे तराज़ू का कोई पलड़ा झुका नहीं है तो क्या ये समझें हमारा कोई ख़ुदा नहीं है