चाँद ने दाग़ों को धोना चाहा ताकि पुर-नूर बदन वादी-ए-एहसास को रौशन कर दे चशमा-ए-सुब्ह की जानिब वो बढ़ा जैसे ही मरमरीं किरनों पे सफ़्फ़ाक अँधेरों का हुजूम हमला-आवर हुआ क़ज़्ज़ाक़-ए-अजल की मानिंद टूट कर चाँद गिरा ग़ार-ए-सियह में आँखें बुझ गईं महफ़िल-ए-अंजुम की सुबुक-रौ शमएँ सर निगूँ मोहर-ब-लब पहले तो कुछ देर जलीं ताब बाक़ी न रही जब तो सियह-पोश हुईं और फिर चार तरफ़ रात का आँचल फैला