ज़िंदा रहना सीख कर भी मैं ने शायद ज़िंदगी को दुर्द-ए-तह तक पी के जीने की कभी कोशिश नहीं की! प्यास थी पानी नहीं था सब्र से शुक्र-ओ-रज़ा के बंद हुजरों में बंधा बैठा रहा और हल्क़ में जब प्यास के काँटे चुभे तो सह गया मैं! मेरे घर वालों ने, मेरे बीवी बच्चों ने भी जलते होंट सी कर प्यास के काँटों को सहने सब्र से शुक्र-ओ-रज़ा के बंद हुजरों में तड़पने का सबक़ सीखा मुझी से ये सरासर बुज़-दिली थी, उन से धोका था कि मैं ने ख़ुद को पहचाना नहीं था! मैं भी मूसा की तरह ग़ुस्से में अपनी आस्तीनों को चढ़ाता और असा की एक कारी चोट से चट्टान के टुकड़े अगर करता तो शायद बाज़याबी के अमल में मुझ पे खुलता रहबरी का फ़न नबुव्वत का करिश्मा प्यास से हलकान लोगों के लिए पानी का चश्मा आज़माइश शर्त थी मैं ने कभी पूरी नहीं की