राख ही राख है इस ढेर में क्या रक्खा है खोखली आँखें जहाँ बहता रहा आब-ए-हयात कब से इक ग़ार की मानिंद पड़ी हैं वीराँ क़ब्र में साँप का बिल झाँक रहा हो जैसे राख ही राख है उँगलियाँ सदियों को लम्हों में बदलने वाली उँगलियाँ शेर थीं नग़्मा थीं तरन्नुम थीं कभी उँगलियाँ जिन में तिरे लम्स का जादू था कभी अब तो बस सूखी हुई नाग-फनी हों जैसे राख ही राख है दिल कि था नाचती गाती हुई परियों का जहाँ अन-गिनत यादों का अरमानों का इक शीश-महल तेरी तस्वीर दरीचों पे खड़ी हँसती थी अब तो पिघले हुए लावे के सिवा कुछ भी नहीं राख के जलते हुए ढेर में क्या पाओगे शहर से दूर है शमशान कहाँ जाओगे