आख़िरी मंज़र से पहले एक मंज़र By Nazm << बीते मौसम की आवाज़ आख़िरी ख़्वाहिश >> कितने गुनाहों का वजूद कितनी रातें मेरे दम से ज़िंदा हैं कितनी आँखों का फ़ुसूँ कितने लब अभी तिश्ना हैं कहने दो मुझे और कुछ कहने दो मुझे बंद न करो इस सियाह रात के ताबूत में जिस की सियाह रौशनाई बन नहीं सकती Share on: