आह सद-अफ़्सोस है फिर आम रुख़्सत हो गया जिस को खाता था मैं सुब्ह-ओ-शाम रुख़्सत हो गया क्यों न उस ग़म पर पढ़ूँ मैं इन्ना लिल्लाह दोस्तो दर-हक़ीक़त रब का इक इनआ'म रुख़्सत हो गया हौसला रख मुंतज़िर रह मौसम-ए-गर्मा का फिर बैन मत कर अब दिल-ए-नाकाम रुख़्सत हो गया देखने से जिस के होती थीं निगाहें शादबाद जिस से पाता था ये दिल आराम रुख़्सत हो गया रोकना चाहा बहुत लेकिन वो निकला बेवफ़ा आख़िरश महबूब-ए-ख़ास-ओ-आम रुख़्सत हो गया फीकी लगती है मुझे तो ज़िंदगी उस के बग़ैर कैफ़-ओ-लज़्ज़त का वो शीरीं जाम रुख़्सत हो गया सैर क्या होती तबीअत बत्न है ख़ाली अभी छोड़ कर वो मुझ को तिश्ना-काम रुख़्सत हो गया अब किसी के जाल में ये क़ैद हो सकता नहीं था 'असर' जिस का असीर-ए-दाम रुख़्सत हो गया