तुम्हें खोजती हैं जो आँखें... तुम उन में किसे देखते हो? कोई गुम-शुदा मुस्कुराहट... जो दिल के ख़लाओं को भरने लगी है या इक धुन कि जिस पर ये ठहरी हुई मुंजमिद ज़िंदगी, रक़्स करने लगी है! तुम्हारे भी मन में परिंदों की चहकार फिर से उतरने लगी है? कोई भूली-बिसरी सी सरगोशी... होंटों पे खिलने लगी है? कहो! ज़िंदगी फिर से मिलने लगी है? सुनहरी वो आँखें जो लौ दे रही हैं वो क़िंदील-ए-जाँ हैं? कि भेदों-भरी रौशनी का निशाँ हैं? कभी ताक़-ए-जाँ पर सँभाले थे तुम ने मआनी जो गुम हो गए थे कहो! तुम ने फिर भी उन्हें पा लिया है? कि फिर इक नई नज़्म की ख़्वाहिशों ने तुम्हें जा लिया है? ये किस को पता है? न जाने तुम आँखों में उन की... किसे ढूँडते हो