अजीब सी ये बात है कि जो मिरा यक़ीन था जो तपते रास्तों में मेरे वास्ते गुलों की सर-ज़मीन था कि जो मिरा गुमान था जो अब्र था मिरे लिए जो मेरा आसमान था जो मेरी इब्तिदा था और मिरा जो इख़्तिताम था जो मेरी सुब्ह-ए-ज़िंदगी जो मेरा आसमान था अज़ल से जो अबद तलक वफ़ा का साएबान था बहुत ही मेहरबान था जो मरकज़-ए-निगाह था जो मेरी बारगाह था वो एक दिन मिला मुझे बहुत ही तेज़ धूप में इक अजनबी के रूप में वो हिज्र में बसे हुए से माह-ओ-साल दे गया चला गया मगर मुझे वो इक सवाल दे गया मैं सोचती हूँ आज भी रुका था सुन के चाप कौन जो कह रहा था आप कौन