एक डर था तन्हाई का एक डर था जुदाई का जो मुसलसल मेरे साथ रहता था कल का दिन जो गुज़र गया बहुत भारी लगता था लगता था किसी ऐसे दिन का बोझ उठा न पाऊँगी आधे-अधूरे रास्ते में ही मर जाऊँगी मगर कल का दिन भी आ ही गया और रेत का वो घरौंदा साथ ही बहा ले गया जिस में रखे थे मैं ने रंग-ब-रंग के प्यारे पत्थर तितलियों के पर और मोर के पँख फूलों के सब रंग और आसमान की धनक गिलहरी का अध खाया अख़रोट माँ के परों तले बैठे मुर्ग़ाबी के बच्चे उस घरौंदे पर उतरी धूप जिस ने मुझ से मेरा साया जुदा कर दिया था कल जब वो सब बे-रहम वक़्त की मौजों के साथ बह गया और चार-सू क़ब्र जैसा अँधेरा फैल गया तो सफ़ेद धूप जाते जाते एक एहसान कर गई वो मुझ को मेरा साया लौटा गई और मैं मरते मरते बच गई वर्ना मैं तो ऐसे कल में मर ही जाती आवाज़ों के बिछड़ने से