होता हूँ जब मैं तन्हा ये सोचता हूँ अक्सर आबादियाँ हैं अच्छी या जंगलों के मंज़र शाइ'र हूँ मैं मिरा हो मस्कन अलग जहाँ से शहरों के शोर-ओ-ग़ुल से तारीक आसमाँ से साए में पेड़ के मैं बिस्तर लगाऊँ अपना ठंडी हवा हो आती बहता हो साफ़ दरिया रंगीनियाँ शफ़क़ की दिल को मिरे लुभाएँ शम्स-ओ-क़मर जहाँ के क़िस्से नए सुनाएँ क़ुदरत का हम-ज़बाँ हूँ और उस के भेद पाऊँ गहराइयों में उस की गोया उतर मैं जाऊँ 2 पर अक़्ल का है कहना ये सब ग़लत है नादाँ गूँगी है तेरी क़ुदरत मंज़र हैं उस के बे-जाँ बे-कार है अगर तो दश्त-ओ-जबल बसाए बे-सर्फ़ा है अगर तो हमदम उन्हें बनाए शाइ'र तुझे हैं कहते है इश्क़ तेरा जीना फ़ितरत है पाक तेरी है क़ल्ब-ए-तूर-ए-सीना तू नूर-ए-सरमदी की है झलकियाँ दिखाता इंसाँ को आसमाँ की सैरें है तो कराता तेरा क़लम जहाँ में हलचल सी डालता है डूबे उभारता है गिरते सँभालता है 3 पर क्यूँ तुझे ऐ शाइ'र बस्ती से है कुदूरत आबादियों में पल कर आबादियों से नफ़रत इंसाँ और उस की फ़ितरत परखी नहीं है तू ने आलम और उस की वुसअ'त पाई नहीं है तू ने मातम कहीं बपा है ख़ुशियाँ कहीं हैं होती इक़बाल है कहीं तो क़िस्मत कहीं है सोती जो इक तरफ़ क़ज़ा के तूफ़ान आ रहे हैं तू इक तरफ़ सहाब-ए-रहमत भी छा रहे हैं तेरा है रुत्बा आली इस बज़्म-ए-ज़िंदगी में आ आ शरीक हो जा इस रज़्म-ए-ज़िंदगी में आलाम को घटा दे आसाइशें बढ़ा दे शम-ए-सुख़न जला कर सब ज़ुल्मतें हटा दे आ कब से मुंतज़िर है आदम का ये घराना आबाद इस में हो जा तेरी यही है दुनिया