तन सुख का इक सागर चाहे जिस में ख़ूब नहाए मन की है ये चंचल आशा जो चाहे सो पाए दुनिया चैन नगर बन जाए तन बेचैन है मन बे-क़ाबू कौन उन्हें समझाए दास ग़ुलाम की आशा कैसी जनम जनम मर जाए मन की बात में कह नहीं सकता मन-मर्ज़ी से रह नहीं सकता कुछ नहीं मेरे बस में बस घुल गई जीवन रस में दुनिया कैसे मुझ को भाए