किस की आरज़ू थी मैं किस की हो गई हूँ मैं कि ख़ुद को भी नहीं मिलती कहीं तो खो गई हूँ मैं यही थी चाहती कहना कुछ और ही कह गई हूँ मैं फ़राएज़ तेरे पर्चे में सफ़-ए-अव्वल रही हूँ मैं रहीन-ए-आशिक़ी हूँ मैं मुसलसल टुकड़ों में जी कर मुसलसल मर रही हूँ मैं है सब से इत्तिफ़ाक़ अपना कि ख़ुद से लड़ रही हूँ मैं ये इज़्ज़त बोझ है शायद जहाँ पर दब गई हूँ मैं हर इक शब जागते गुज़री कि सोने कब गई हूँ मैं सदा तहज़ीब भी हूँ मैं सदा तहरीक भी हूँ मैं कभी तू ग़ौर तो कर ले कहीं तफ़रीक़ भी हूँ मैं कभी बेज़ार भी हूँ मैं कभी ग़म-ख़्वार भी हूँ मैं अगर कुछ वक़्त पड़ जाए सुनो तलवार भी हूँ मैं खड़ी है जो कि तूफ़ाँ में वही चट्टान भी हूँ मैं मुकम्मल एक नाज़ुक सा कोई गुल-दान भी हूँ मैं ऐ इब्न-ए-आदम-ए-दावर ख़याल-ए-बिंत-ए-हव्वा कर