हलवे के लिए फिर आज भी हम इक आस लगाए बैठे हैं जो बात ज़बाँ पर ला न सके वो दिल में छुपाए बैठे हैं थोड़ी सी मिठाई ताक़ पे थी मुट्ठी में चुराए बैठे हैं अब्बू के भगाए भागे थे अम्मी के बुलाए बैठे हैं कुछ बच भी गई हैं पिटने से कुछ मार भी खाए बैठे हैं तुझ से तो हमें कोई शिकवा ऐ ख़ालिक़-ए-सुब्ह-ओ-शाम नहीं स्कूल ही ऐसा है कि जहाँ कुछ चैन नहीं आराम नहीं इस वक़्त अगरचे सर में किसी के दर्द बराए नाम नहीं हर वक़्त मगर पढ़ते रहना कम-उम्रों का तो काम नहीं सब अपनी अपनी कुर्सी पर सुध-बुध बिसराए बैठे हैं इक बार कहीं से मिल जाता हम सब को चराग़-ए-चैन अगर बस साल में इक दिन पढ़ लेते दर्जे की किताबें फ़र फ़र फ़र फिर ख़्वाब ही दिलचस्पी रहती फिर ख़ूब मज़ा आता दिन भर स्कूल में जाना क्यूँ होता हर रोज़ ये रहता क्यूँ चक्कर उम्मीद नहीं लेकिन फिर भी उम्मीद लगाए बैठे हैं लेकिन ये ज़माना इल्म का है ये वक़्त है आगे बढ़ने का मिल-जुल के करेंगे गर मेहनत हो जाएगा हर सपना पूरा हिम्मत से हुई हैं तामीरें जुरअत से हुआ है काम नया जब अज़्म-ओ-अमल अच्छा होगा अच्छा ही नतीजा भी होगा हम लोग यहाँ हलवा खा कर इक शम्अ' जलाए बैठे हैं