लो वक़्त हुआ रात का और आह नदारद बिजली अभी आई थी अभी वाह नदारद इस तीरगी में होश है वल्लाह नदारद 'असरार' अंधेरे में जो है झेलना वो झेल बिजली हुई फिर रोज़-ए-गुज़िश्ता की तरह फ़ेल ग़ाएब हुई बिजली तो हुई फ़िक्र की लो तेज़ लोगों ने उसी वक़्त क्या तंज़ को महमेज़ तुम लाख करो अपनी तबीअत को सुख़न-ख़ेज़ मुमकिन नहीं उस वक़्त तख़य्युल की मंढे बेल बिजली हुई फिर रोज़-ए-गुज़िश्ता की तरह फ़ेल हमदम ने कहा आज अंधेरे में ही खाओ कुछ कीड़े-मकोड़ों को भी सालन में मिलाओ बे-ख़र्च मज़ा मुर्ग़ मुसल्लम का उड़ाओ ये लुत्फ़-ओ-करम जान पे ख़ुद अपनी गया झेल बिजली हुई फिर रोज़-ए-गुज़िश्ता की तरह फ़ेल जब मोम की बत्ती न ही ढबरी नज़र आई इक पूरी किताब इक नई कापी ही जलाई तब इल्म की दौलत से ज़रा रौशनी पाई दस बीस किताबों को जलाया कि न था तेल बिजली हुई फिर रोज़-ए-गुज़िश्ता की तरह फ़ेल हम-सूरत-ए-माशूक़-ए-तरह-दार है बिजली 'असरार' के घर में भी पुर-असरार है बिजली हर रोज़ सर-ए-शाम ही बीमार है बिजली चलते हुए यक-बारगी रुक जाती है ये रेल बिजली हुई फिर रोज़-ए-गुज़िश्ता की तरह फ़ेल हम-सूरत-ए-माशूक़-ए-तरह-दार है बिजली 'असरार' के घर में भी पुर-असरार है बिजली हर रोज़ सर-ए-शाम ही बीमार है बिजली चलते हुए यक-बारगी रुक जाती है ये रेल बिजली हुई फिर रोज़-ए-गुज़िश्ता की तरह फ़ेल बिजली के चले जाने से टकरा गए कुछ लोग कप चाय का शेरवानी पे छलका गए कुछ लोग तारीकी में जेब अपनी कतरवा गए कुछ लोग हर रोज़ मिरे शहर में होता है यही खेल बिजली हुई फिर रोज़-ए-गुज़िश्ता की तरह फ़ेल अब पास के होटल में भी जाना नहीं मुमकिन अहबाब से गप जा के लड़ाना नहीं मुमकिन हद ये है कलाम अपना सुनाना नहीं मुमकिन बिजली के चले जाने से अब घर भी बना जेल बिजली हुई फिर रोज़-ए-गुज़िश्ता की तरह फ़ेल
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