ऐ अंदलीब-ए-गुलशन मैं हूँ तिरा फ़िदाई इस सौत-ए-जाँ-फ़ज़ा की अल्लह रे दिल-रुबाई बंदा समझ मुझे तू हल्क़ा-ब-गोश अपना तुझ से कभी न हूँगा मैं तालिब-ए-रिहाई छुप कर चमन में अक्सर गुलबन की आड़ से भी पहरों सुनी है तेरी जाँ-बख़्श ख़ुश-नवाई मुर्दा दिलों में अक्सर फूंकी है रूह तू ने हम ने तिरी सदा की देखी है जाँ-फ़ज़ाई ऐ नग़्मा-संज तुझ पर है ख़त्म नग़्मा-ए-संजी इक बात मैं ने लेकिन तुझ में कभी न पाई तेरी सदा-ए-दिलकश पहुँची न दूर हरगिज़ दुनिया में हर जगह पर इस की नहीं रसाई मुमकिन नहीं ये तुझ से ऐसा तराना गूँजे बैठी रहे यहीं तू लेकिन ज़माना गूँजे ऐ नुक्ता-संज शाइ'र ये तो है काम तेरा ऐसा तराना देखा बे-शक कलाम तेरा कुछ ऐसी तान छेड़ी महज़ूज़ हो गए सब मम्नून हो रहा है हर ख़ास-ओ-आम तेरा ज़ुल्फ़-ए-सुख़न की तेरी अल्लाह री रसाई हर-सू बिछा हुआ है दुनिया में दाम तेरा तेरा कलाम क्या है तस्ख़ीर का अमल है हिन्दू हो या मुसलमाँ हर इक है राम तेरा सरशार है ज़माना इस बादा-ए-सुख़न से दुनिया की महफ़िलों में चलता है जाम तेरा आवाज़ा तेरा पहुँचा यूनान में अजम में वासिफ़ है रूम तेरा मद्दाह शाम तेरा तू एशिया में बैठा करता है नुक्ता-संजी पहुँचा है जा के यूरोप लेकिन कलाम तेरा छूटा नहीं अभी तक पाबंदी-ए-वतन से ग़ुर्बत में कैसे पहुँचा 'बासित' ये नाम तेरा तेरे शिकस्ता पर में परवाज़ भी नहीं है ऐसी रसा तो तेरी आवाज़ भी नहीं है