अजीब कूचा-ए-रश्क-ए-जिनाँ था देहली का बहिश्त कहते हैं जिस को मकाँ था देहली का दिमाग़ बर-सर-ए-हफ़्त-आसमाँ था देहली का ख़िताब-ए-ख़ित्ता-ए-हिन्दोस्ताँ था देहली का ग़ज़ब है उस को कोई शादमाँ न देख सका ज़मीं न देख सकी आसमाँ न देख सका हज़ारों ज़ुल्फ़-ए-परी-वश के याँ थे सौदाई हज़ारों मय-कश-ओ-मय-ख़्वार-ओ-मस्त-ओ-सहबाई शराब-ए-ऐश पिलाता था चर्ख़-ए-मीनाई क़ुबूल करते थे इस दर पे सब जबीं-साई जो आता था सो वो हो रहता था उसी घर का ज़मीं की नाफ़ है का'बा है बत्न-ए-मादर का वो तख़्त-ए-सल्तनत-ओ-बारगाह-ए-सुल्तानी कि जिस में बैठते थे आ के ज़िल्ल-ए-सुब्हानी परों से सर पे हुमा करता था मगस-रानी बजा उस औज पे था दा'वा-ए-सुलैमानी हर एक क़स्र को दा'वा था ताक़-ए-किसरा का दिमाग़ अर्श पे था क़िला-ए-मुअल्ला का ज़ुहल की आँख पड़ी इत्तिफ़ाक़ से नागाह तमाम हो गया ताराज मुल्क-ओ-माल और जाह कि उस से हो गए बद-तर ग़रीब शाहंशाह रईयत उस की हुई उस से भी ज़ियादा तबाह वो साहूकार न था जिस की साख में बट्टा अब उस के नाम पे लगता है लाख में बट्टा मिला ये हुक्म कि सब लोग याँ से टल जाएँ इसी में ख़ैर है जो शहर से निकल जाएँ दबी है बुक़ची तो दिखला के याँ बग़ल जाएँ जो कुछ है छोड़ यहाँ साहब-ए-दवल जाएँ न सर पे टोपी है उन के न पाँव में जूती बग़ल में तोते का पिंजङ़ा नबी-जी भेजो जी यहाँ जो आन की देखी तो दार की सूरत वो दार कहिए जिसे जुल्फ़िक़ार की सूरत मिटा दी चश्म-ए-ज़दन में हज़ार की सूरत नज़र पड़ी न किसी बे-क़रार की सूरत ब-रंग-ए-तीर-ए-शहाब आग में जले लाखों सिपुर्द दार-ओ-रसन हो गए गले लाखों