शबनम का एक क़तरा बे-बहरा-ए-ख़ुदी था टपका फ़लक से शब को और बर्ग-ए-गुल पे ठहरा इस तरह था चमकता हीरे का जैसे टुकड़ा करता था खेल उस से मौज-ए-सबा का झोंका रंगीं हुआ था वो भी जिस तरह हर कली थी मिलती थीं जब भी शाख़ें रह रह के था सँभलता लेता था बर्ग-ए-गुल पर धीरे से फिर सहारा रंग-ए-चमन था देता इक दावत-ए-नज़ारा हर चंद रंज-ओ-सदमा उस को नहीं ज़रा था लेकिन कोई सबब था जो वो लरज़ रहा था रंगीं हुआ था वो भी जिस तरह हर कली थी शबनम सी ज़िंदगी क्या बेहतर है मर ही जाना ख़ुद्दार हो जहाँ में हीरे का जैसे टुकड़ा ख़ुर्शीद का हो परतव सामान ख़ुद बक़ा का बन आह लख़्त-ए-आदम अल्मास का तू टुकड़ा हीरे का एक टुकड़ा तश्बीह है ख़ुदी का