सुनो गर सुन सको तुम दास्तान-ए-ख़ूँ-चकाँ मेरी रुला देगी मगर आँसू लहू के दास्ताँ मेरी न सुन मेरी ज़बाँ से तज़्किरा मेरी तबाही का ज़बान-ए-हाल से कह देंगी सब बर्बादियाँ मेरी तड़प कर भूक से अक्सर मिरे फ़रज़ंद मरते हैं बरहना-तन नज़र आएँगी तुझ को बेटियाँ मेरी फटे कपड़ों में जब मल्बूस बीवी को मैं पाता हूँ तो बंध जाती हैं अक्सर रोते रोते हिचकियाँ मेरी मिरी मेहनत के शाहिद हैं ये छाले मेरे हाथों के मिरी ग़ुर्बत का मज़हर है ये जान-ए-नीम-जाँ मेरी अमीरों की न पूछो तुम अगर कुछ बस चले उन का तो पी जाएँ लहू मेरा चबा लें हड्डियाँ मेरी अगर कुछ रहम कर सकते नहीं हैं मेरी हालत पर 'अली' इतना करें कि न उड़ाएँ फब्तियाँ मेरी