न दुनिया का हम माल-ओ-ज़र माँगते हैं किसी से न अलक़ाब-ए-सर माँगते हैं न पुखराज लाल-ओ-गुहर माँगते हैं शराफ़त का जीना मगर माँगते हैं हमें जज़्बा-ए-हुब्ब-ए-क़ौमी अता कर यही हक़ से शाम-ओ-सहर माँगते हैं मिला दे जो सीनों में दिल ज़ालिमों के वो आहों में अपनी असर माँगते हैं बिगड़ने की तो बात ही कुछ नहीं है हुज़ूर हम तो अपना ही घर माँगते हैं बता क़ौम-ए-ग़ाफ़िल ये क्या माजरा है तिरे बच्चे क्यों दर-ब-दर माँगते हैं 'अली' जान लो वो हैं दुश्मन वतन के जो उन से करम की नज़र माँगते हैं