ऐ मेरे पाक वतन देखे थे कई ख़्वाब तुम्हारी ख़ातिर सींचे थे कई गुलाब तुम्हारी ख़ातिर तेरी मिट्टी की ख़ुश्बू की क़सम खाई थी तब कहीं जा के गुल-ए-लाला मुस्कुराई थी ऐ मेरे अर्ज़-ए-वतन ऐ मेरे ख़ुश्बू के चमन मिट्टी को तेरी रंगा था लहूँ से अपने 'इक़बाल' ने चाहा तुझे फ़िक्र से अपने क़ौम-ए-मुस्लिम का बस तू ही इक ठिकाना है इक घर इक जन्नत इक आशियाना है ऐ मेरे अर्ज़-ए-वतन ऐ मेरे आसमान के गगन हम को दिन-रात यूँ सजाना है तुझे मानिंद-ए-सहर आँखों में बसाना है तुझे तेरे खेत खलियान रहें बाक़ी शहरों की जगमगाहट यूँ चमकती रहे ऐ मेरे अर्ज़-ए-वतन ऐ मेरे पाक वतन तेरे परचम की आन को बढ़ाना है हमें तेरी मिट्टी का क़र्ज़ चुकाना है हमें तेरी अज़्मत को सलाम किया जाए हर सू ऐसा कुछ कर के ऐ वतन दिखाना है हमें