इत्तिफ़ाक़न एक पौदा और घास बाग़ में दोनों खड़े हैं पास पास घास कहती है कि ऐ मेरे रफ़ीक़ क्या अनोखा इस जहाँ का है तरीक़ है हमारी और तुम्हारी एक ज़ात एक क़ुदरत से है दोनों की हयात मिट्टी और पानी हवा और रौशनी वास्ते दोनों के यकसाँ है बनी तुझ पे लेकिन है इनायत की नज़र फेंक देते हैं मुझे जड़ खोद कर सर उठाने की मुझे फ़ुर्सत नहीं और हवा खाने की भी रुख़्सत नहीं कौन देता है मुझे याँ फैलने खा लिया घोड़े गधे या बैल ने तुझ पे मुँह डाले जो कोई जानवर उस की ली जाती है डंडे से ख़बर ओले पाले से बचाते हैं तुझे क्या ही इज़्ज़त से बढ़ाते हैं तुझे चाहते हैं तुझ को सब करते हैं प्यार कुछ पता उस का बता ऐ दोस्त-दार उस से पौदे ने कहा यूँ सर हिला घास सब सच्चा है तेरा ये गिला मुझ में और तुझ में नहीं कुछ भी तमीज़ सिर्फ़ साया और मेवा है अज़ीज़ फ़ाएदा इक रोज़ मुझ से पाएँगे साए में बैठेंगे और फल खाएँगे है यहाँ इज़्ज़त का सहरा उस के सर जिस से पहुँचे नफ़अ सब को बेश-तर