जिन को दुनिया में किसी से भी सरोकार न था अहल-ओ-ना-अहल से कुछ ख़ल्त उन्हें ज़िन्हार न था उन की ख़ल्वत से कोई वाक़िफ़-ओ-हमराज़ न था आदमी क्या है फ़रिश्ते का भी वाँ बार न था वो गली-कूचों में फिरते हैं परेशाँ दर दर ख़ाक भी मिलती नहीं उन को कि डालें सर पर ऐश-ओ-इशरत के सिवा कुछ भी न था जिन को याद लुट गए कुछ न रहा हो गए बिल्कुल बर्बाद टुकड़े होता है जिगर सुन के ये उन की फ़रियाद फिर भी देखेंगे इलाही कभू देहली आबाद कब तलक दाग़-ए-दिल एक एक को दिखलाएँ हम काश हो जाए ज़मीं शक़ तो समा जाएँ हम रोज़ वहशत मुझे सहरा की तरफ़ लाती है सर हो और जोश-ए-जुनूँ संग हो और छाती हो टुकड़े होता है जिगर जी ही पे बन जाती है मुस्तफ़ा-ख़ाँ की मुलाक़ात जो याद आती है क्यूँकि 'आज़ुर्दा' निकल जाए न सौदाई हो क़त्ल इस तरह से बे-जुर्म जो सहबाई हो