सरापा आग का मिट्टी के पैकर को घुलाए जा रहा है ज़मीं के जिस्म का साया ख़लाओं से पलट कर उसी के अपने आधे जिस्म को हर लम्हा काला कर रहा है यही जादू मुसल्लत है अज़ल से कई पगडंडियों का जाल सा फैला हुआ है गुज़रगाहों के कुछ शफ़्फ़ाफ़ कुछ मौहूम ख़ाके हमें गर्म-ए-सफ़र रक्खे हुए हैं सरापा आग का