हर रोज़ कर रहे हैं शरारत नई नई वो लोग जिन से शर्म-ए-रसूल-ए-ख़ुदा गई जिन के ज़मीर-ओ-ज़र्फ़ पे तख़्लीक़ शर्मसार जिन के दिल-ओ-दिमाग़ का साँचा है सुरमई क्या पूछते हो उम्मत-ए-अहमद-रज़ा का हाल अंदर से दाग़-दार तो बाहर से चम्पई रीश-ए-दराज़ ज़ुल्फ़-ए-चलीपा से फ़ैज़याब उस लोबत-ए-फ़रंग के शौहर कई कई मस्लक में उन के आनरेरी मुख़बिरी हलाल मज़हब है इस ज़लील घरौंदे का नुक़रई माथे पे फ़र्श-ए-बोस-ए-रिवायात का ग़ुबार चेहरा ब-फ़ैज़-ए-हल्क़ा-ए-उश्शाक़ अगरई हम ऐसे कुश्तगान-ए-वफ़ा के ख़िलाफ़ हैं 'असरार' ख़ानदान-ए-कलायू के मुजरई