गुलाबी शाम की दस्तक सुनी तुम ने अजब साअ'त में तुम ने दिल में मेरे याद का इक बीज फेंका था कि उस से फूटने वाले तुम्हारे और मेरे दरमियाँ कुछ हामिला लम्हे तुम्हें मालूम कब होगा कि वो तकमील की दहलीज़ पे आते हुए किस ज़ब्त से गुज़रे बक़ा की जंग को हारे वो सब लम्हे कहाँ किस दर्द से गुज़रे किसी उजड़ी हुई अब कोख की मानिंद बहुत बेचैन रहते हैं अगर मुमकिन हो तो सुनना किसी मुर्दा सुरों को जन्म देते साज़ की आहट मुझे है इल्म कि कब वक़्त होगा ऐसी बातों का मगर फिर भी निगह इक सरसरी करना तुम्हें बस ये दिखाना है बहुत बेचैन रखती है तलब जब बैन करती है तो पड़ती है गुलाबी शाम पे सिलवट