नूर-ओ-निकहत का जैसे हो सैल-ए-रवाँ जैसे इख़्लास-ओ-उल्फ़त का इक कारवाँ दर्स-ए-इंसानियत जिस से मिलता है 'शौक़' ईद-ए-रमज़ाँ है अम्न-ओ-अमाँ का निशाँ लब-ए-शीरीं पे मसर्रत के तराने आए ईद आई तिरे मिलने के ज़माने आए दोस्त तो दोस्त हैं दुश्मन भी गले मिलने लगे वाह क्या ख़ूब अनोखे ये बहाने आए