रोज़ यूँ ही होता है सोच के दरीचों से याद की हसीं परियाँ नाचती उतरती हैं हाथ थाम कर मेरा संग संग चलती हैं और फिर वही क़िस्सा इब्तिदा से आख़िर तक हर्फ़ हर्फ़ ख़्वाबों का पैरहन बदलता है स्क्रीन पे जैसे कोई फ़िल्म चलती हो और हर तमाशाई दम-ब-ख़ुद हो हैराँ हो इस हुजूम में तन्हा देख कर कोई मुझ को मेरे पास आता है हर सवाल आँखों का ऐसे मुझ को तकता है जैसे तज़्किरा उस का ख़ुद मिरी कहानी है मैं उसे पकड़ने को जब भी हाथ फैलाऊँ सिलसिला ख़यालों का टूट कर बिखर जाए जैसे रौशनी गुल हो स्क्रीन बुझ जाए जैसे इख़्तिताम से पहले फ़िल्म ही ठहर जाए रोज़ यूँ ही होता है