सुना है फिर आज रत-जगा है कि आ गई है फिर एक लम्हा में जीने-मरने की सदियों पर मुहीत साअ'त वो ख़्वाब के जागते नगर में रविश रविश चाँदनी बिछाए अंधेरे कमरे के सब दरीचों में इंतिज़ार की मिशअलें जलाए वो नींद से दूर अन-गिनत बे-शुमार रातें सलीब एहसास की उठाए वो अन-कही अन-सुनी कहानी के सारे किरदार हाथ फैलाए अलाव के गिर्द फिर खड़े हैं क़तार बाँधे इशारा मिलने के मुंतज़िर हैं कि ख़्वाब की सर-ज़मीन कब क़त्ल-गाह होगी ये एक लम्हा में जीने-मरने की सदियों पर मुहीत साअ'त न जाने अब किस की भेंट लेगी कि कोई ज़ी-रूह ख़्वाहिशों के उजाड़ जंगल में अब नहीं है