बहुत बहा है ज़माने में ख़ून इंसाँ का करो कुछ ऐसा कि दुश्मन न कोई क़ातिल हो अजीब दौर है दुनिया में कम-निगाही का कोई तो नूह सा निकले कहीं तो साहिल हो जहाँ भी देखो जमाया है डेरा ग़ासिब ने यहाँ पे काश कोई हक़-परस्त-ओ-आदिल हो हर एक सम्त हुकूमत है दुश्मन-ए-आदम कोई तो फ़ातेह-ए-ज़ुल्म और रद्द-ए-बातिल हो नहीं है शे'र में इश्क़-ओ-वफ़ा सदाक़त कुछ कोई हो 'ग़ालिब'-ओ-'इक़बाल' कोई 'बेदिल' हो जलाओ इल्म-ओ-मोहब्बत की वो हसीं शमएँ न कोई दुश्मनी रक्खे न कोई जाहिल हो