सुकूँ की छाँव के मुंतज़िर कब से खड़े ग़मों की धूप में तप रहे हैं दूर तक कहीं भी कोई चाहत का साया नज़र आता नहीं मेरे मालिक तू अगर चाहे ज़र्रे को सूरज और क़तरे को समुंदर भी बना दे दुखों के हम बहुत मारे हुए हैं अब और इम्तिहाँ न ले बरसा दे हम पे रहम की बारिश ख़ुदाया