एक रहगुज़ार पर देर से खड़ा हुआ सोचता हूँ मैं कि अब कौन आएगा इधर किस का इंतिज़ार है दिन तो कब का छुप गया शाम कब की ढल चुकी आस और उमीद की हर घड़ी निकल चुकी ऊँघने लगे दरख़्त रास्ते भी सो गए इंतिज़ार के चराग़ बुझ के सर्द हो गए दिल कहे कि लौट चल अब ये वक़्त बार है कौन आएगा इधर किस का इंतिज़ार है अब कोई न आएगा