मैं ने अपने अंदर अंदर जितना जो कुछ बुन रक्खा था मैं ने अपने आप से अपने बारे में जो कुछ भी सुन रक्खा था मैं ने अपने आप को जितना जैसा फ़र्ज़ किया था मैं उस से भी और सिवा थी मिट्टी थी मैं मैं पानी थी आग भी थी जितनी मैं हवा थी लेकिन अपनी सब जिहतों से मुतआ'रिफ़ हो जाना ख़ुद को कितना महँगा पड़ सकता है देख रही हूँ मूँद के आँखें सखी कि इरफ़ाँ-गज़ीदा आँख ने देखा है इक अबदी अबदी ख़सारा