जागती है आँख में इक बेकली कौन जाने रात फिर कैसे ढली ज़िंदगी उस ख़्वाब से आगे चली ज़र्द पेड़ों का नगर है सामने जलते पत्तों का सफ़र है सामने एक वीराँ रहगुज़र है सामने वक़्त जैसे रुक गया हो दह्र का इस फ़ज़ा में ज़ाइक़ा है ज़हर का बे-गुनाहों पर है मौसम क़हर का क्या चलें जब रास्ता ही ख़त्म है सोचने का सिलसिला ही ख़त्म है लब हिलें क्या जब दुआ ही ख़त्म है