ज़िंदगी की तवील रातों में जब कभी जाएज़ा लिया मैं ने ज़िंदगी को अजीब पाया है और मैं सोचता ही रहता हूँ ज़िंदगी भी अजीब चक्कर है कभी शहनाइयों में डसती है कभी शहनाइयों में बस्ती है कभी दीवाना-वार हँसती है और कभी मौत को तरसती है अल-ग़रज़ इक सराब है हस्ती कितनी ख़ाना-ख़राब है हस्ती