क्या अजब है कि कभी दिल के सियह-ख़ाने में मुस्कुरा उट्ठे कोई शोख़ किरन ये बला-ख़ाना-ए-तारीक मुनव्वर हो जाए तोड़ दे अपनी ख़मोशी जो ज़मीर ग़म के तह-ख़ानों के असरार खुलें फिर न एहसास चुभोए नश्तर फिर न रह रह के झिंझोड़े ये ज़मीर और सीने पे कोई बोझ भी बाक़ी न रहे ज़ह्न से फ़िक्र का अम्बार हटे इक कड़े दर्द का दरमाँ हो जाए हाए वो दर्द जो अल्फ़ाज़ में ढलता ही नहीं एक काँटा जो किसी तरह निकलता ही नहीं