सिलसिले ख़्वाब के गुमनाम जज़ीरों की तरह सीना-ए-आब पे हैं रक़्स-कुनाँ कौन समझे कि ये अंदेशा-ए-फ़र्दा की फ़ुसूँ-कारी है माह ओ ख़ुर्शीद ने फेंके हैं कई जाल इधर तीरगी गेसू-ए-शब-तार की ज़ंजीर लिए मेरे ख़्वाबों को जकड़ने के लिए आई है ये तिलिस्म-ए-सहर-ओ-शाम भला क्या जाने कितने दिल ख़ून हैं अंगुश्त हिनाई के लिए कितने दिल बुझ गए जब रू-ए-निगाराँ में चमक आई है ख़्वाब हैं क़ैद-ए-मकाँ क़ैद-ए-ज़माँ से आगे किस को मिल सकता है उड़ते हुए लम्हों का सुराग़ कितनी सदियों की मसाफ़त से उभरता है ख़त-ए-राह-गुज़ार