क्या हुआ शौक़-ए-फ़ुज़ूल क्या हुई जुरअत-ए-रिंदाना मिरी मुझ पे क्यूँ हँसती है तामीर-ए-सनम-ख़ाना मिरी फिर कोई बाद-ए-जुनूँ तेज़ करे आगही है कि चराग़ों को जलाती ही चली जाती है दूर तक ख़ौफ़ का सहरा नज़र आता है मुझे और अब सोचता हूँ फ़िक्र की इस मंज़िल में इश्क़ क्यूँ अक़्ल की दीवार से सर टकरा कर अपने माथे से लहू पोंछ के हँस पड़ता है