'तारिक़' क्या कभी क़ौम का नौहा भी लिखोगे या बस दर-ए-दौलत का क़सीदा ही लिखोगे अंगुश्त-नुमाई सदा अग़्यार पे होगी या जुर्म कभी कोई तुम अपना भी लिखोगे जो दिल पे गुज़रते हैं वो सदमात लिखो अब छोड़ो ये क़सीदा कोई हक़ बात लिखो अब क्यूँ अपनी वफ़ाओं के भरम टूट रहे हैं क्यूँ हम पे ही ये ज़ुल्म-ओ-सितम टूट रहे हैं जिस क़ौम की मीरास थे ये इल्म-ओ-शुजाअत क्यूँ उस पे ही शमशीर-ओ-क़लम टूट रहे हैं हर ज़ालिम-ओ-ज़ुल्मत को हैं मतलूब हमी क्यूँ सोचा है कभी होते हैं मा'तूब हमी क्यूँ कुछ अपनी तबाही के भी अस्बाब लिखो अब जिस बाब पे शर्मिंदा हो वो बाब लिखो अब मख़दूश हैं क्यूँ मिम्बर-ओ-मेहराब लिखो अब सोने जो नहीं देते हैं वो ख़्वाब लिखो अब सोचा है कभी आज ये हालत है तो क्यूँ है हर-गाम पे तहक़ीर है ज़िल्लत है तो क्यूँ है कल वक़्त के सीने पे कफ़-ए-पा थे हमारे ये दश्त-ओ-जबल और ये दरिया थे हमारे ये सात समुंदर थे ये सहरा थे हमारे क़दमों तले मिर्रीख़-ओ-सुरय्या थे हमारे तारीख़ फ़क़त महव-ए-क़सीदा थी हमारी गिर्वीदा-ए-अख़लाक़-ए-हमीदा थी हमारी हम ही तो कभी मौत से थे खेलने वाले थे मक़्तल-ओ-ज़िंदाँ के चराग़ों के उजाले और आज ये जीने के हैं अंदाज़ निराले जादा है न मंज़िल है न अब पावँ में छाले हम अपने ज़मीरों की तिजारत में पड़े हैं कासा लिए बाज़ार-ए-सियासत में खड़े हैं इज़्ज़त के सदाक़त के शहादत के क़सीदे अस्लाफ़ के किरदार की अज़्मत के क़सीदे भूले हुए बैठे हैं शुजाअ'त के क़सीदे हम पढ़ने लगे अहल-ए-रऊनत के क़सीदे अब अपना ज़मीर अपना यक़ीं बेच रहे हैं हम लुक़्मा-ए-तर के लिए दीं बेच रहे हैं मक़्सूद जो ख़ुशनूदी-ए-क़ातिल है हमारी हम ख़ुश हैं कि कश्ती सर-ए-साहिल है हमारी उक़्बा की तमन्ना कहाँ हासिल है हमारी कुर्सी की तलब आख़िरी मंज़िल है हमारी किस शान से जीते थे यहाँ ख़ार हुए क्यूँ सोचा है कभी हाशिया-बरदार हुए क्यूँ