एक अंदाज़ से देखूँ तो हुमायूँ तुम हो और इक तर्ज़ की बाबर मैं हूँ रोज़-ओ-शब दर्द के फेरों में रहें बार-ए-ग़म ख़ुद पे उठाने की दुआओं के सिवा मुस्तजाबी का कोई ढंग न हो तंदुरुस्ती भी कोई ताक़ अदद हो जैसे दो पे तक़्सीम नहीं हो सकती मेरे आज़ार में जितना भी इज़ाफ़ा होगा उस क़दर तुम को शिफ़ा पहुँचेगी