दिल-ए-वहशी जुनूँ की कौन सी मंज़िल थी कल शब जहाँ बाहम हुए क़ज़्ज़ाक़-दिलबर चले ख़ंजर गले पर आस्तीं पर दिल-ओ-दामन पे दस्तार-ओ-जबीं पर अजब एक शोर था महशर बपा था बहुत आह-ओ-फ़ुग़ाँ अंदोह जानी हज़ारों ज़ख़्म और एक सख़्त जानी न जाने शिद्दत-ए-यलग़ार क्या थी नहीं मा'लूम क्या मुद्दत रही किश्त-ए-निगाराँ की खुली जब आँख तो एक टूटते नशे का आलम था शफ़क़-गूँ था उफ़ुक़ दिल का चमन का रास्ता धब्बों से पुर था और सबा दामन में अपने ख़ून की बू बास रखती थी नज़ारा दीदनी था और दिल-ए-बेताब ने देखा लहू से लाल है सेहन-ए-चमन और हर तरफ़ बद-रंग ख़ूँ की लाला-कारी है नगीना दिल का सौ टुकड़े पड़ा है और हर टुकड़े में कोई अक्स-ए-वहशी है दिल-ओ-दिलबर की आशुफ़्ता-सरी है दिल-ओ-दिलबर की राहों में फ़क़त शीशे की किर्चें हैं