सोने वालों को पयाम-ए-सुब्ह-ए-नौ देती हुई ख़्वाब की दुनिया उठी अंगड़ाइयाँ लेती हुई मत्ला-ए-मशरिक़ पे चमका आफ़्ताब-ए-शाइ'री हर किरन जिस की बनी तार-ए-रबाब-ए-शाइ'री दिल पे था जो दाग़-ए-ग़फ़लत उस को आहें धो गईं ख़ून-ए-मशरिक़ में हज़ारों बिजलियाँ हल हो गईं ज़ब्त के ज़ख़्म-ए-निहाँ फ़रियाद से भरने लगे या'नी बंदे भी ख़ुदा से गुफ़्तुगू करने लगे आरिज़-ए-पुर-नूर झलका गेसु-ए-शब-रंग से जू-ए-बार-ए-साज़-ए-दिल निकली सुकूत-ए-संग से अश्क-ए-ख़ूनीं में नज़र आई तबस्सुम की झलक नग़्मा-ए-बुलबुल बनी ख़ामोश फूलों की महक कारवाँ बढ़ने लगा तेज़ी से मंज़िल की तरफ़ काएनात-ए-दर्द ख़ुद खींचने लगी दिल की तरफ़ दहर के धारे पे तूफ़ानी हवा सहने लगी नाव मशरिक़ की किनारे की तरफ़ बहने लगी जाग उठा मशरिक़ दिल-ए-इक़बाल की धड़कन गवाह वाह का महशर लिए आती है जिस की लब पे आह क़ल्ब-ए-शाइर से सदाक़त ले के निकली शाइ'री सच कहा है शाइ'री जुज़्वीस्त अज़ पैग़म्बरी