मैं कब तक यूँही ख़ानदानी शुजाअ'त शराफ़त की तारीख़ रखता रहूँगा यूँही अपने अस्लाफ़ की शान-ओ-शौकत की बातें करूँगा मैं माज़ी नहीं हूँ मैं अपने में मौजूद जीता रहा हूँ मैं अपने क़दम की सुलगती ज़मीं पर ही चलता रहा हूँ ज़माने की भट्टी में तपता रहा हूँ मिरे वक़्त ने मुझ को कुंदन बनाया मैं जो कुछ हूँ मैं हूँ अभी कोई गुज़रा हुआ पल नहीं हूँ मैं मौजूद हूँ हाल से मेरा रिश्ता रहेगा बराबर मैं माज़ी नहीं हूँ मैं हूँ अहद-ए-हाज़िर मैं अपने ज़माने की तारीख़ हूँ ख़ुद मिरा ज़िक्र ही तज़्किरा हाल का है मुझे अपनी बातें सुनानी हैं सब को सुनाऊँगा अब मैं सुना कर रहूँगा