मन अरफ़ा नफ़्सहू

रौशनी की एक नन्ही सी लकीर
मेरे कमरे के अँधेरे का बदन

चुपके चुपके टटोलती है
जिस तरह हब्शी हसीना के ढले

संदल के से
आबनूसी जिस्म के आ'साब में

तेज़ सूई की अचानक इक चुभन
सरसराते साँप की मानिंद दौड़ाती है ख़ूँ

झनझना उठते हैं सारे तार-ओ-पू
और फिर आहिस्ता आहिस्ता कहीं

ज़ेर-ए-सत्ह-ए-जान-ओ-दिल
ये तलातुम

रुक के सो जाता है
या'नी

अज़दर-ए-आसूदा-ख़ातिर की तरह
ख़्वाब-नोशीं के उड़ाता है मज़े

फिर भी लेकिन
इक ग़ुबार-ए-इंतिज़ार

मेरे कमरे की फ़ज़ा में
मिस्ल-ए-आब-ए-सियाह रौशन है

जैसे तारीकी ख़ुद अपनी तह तक
पहुँचने को बेचैन हो

इस लिए
रौशनी की इस अंगुश्त-ए-बे-रहम का

ख़ैर-मक़्दम करे
अज़दर-ए-आसूदा-ख़ातिर को जगाए

दर्द ये है
मेरे कमरे का अंधेरा कभी इक बार मुसख़्ख़र नहीं हो पाता

नक़्श-ए-तारीक मुनव्वर नहीं होने पाता
कोई गोशा

कभी रौशन
कहीं गोशा कोई

उजले कपड़ों की क़तारों से लटकते हुए इंजीर के ख़ोशे
राख के ढेर

ग़लाज़त के कुएँ
सोने चाँदी के दमकते हुए फल

रौशनी
या तेज़ सूई

या तलातुम
जो भी हो तुम

तीरगी को इस तरह से मुनक़सिम
तुम जो कर देते कि दीवारों का रंग

साफ़ खिल उठता तो अपने को भी इन में मुनअ'किस मैं देख लेता


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