गुल-ए-सहर की न गेसू-ए-शाम की ख़ुशबू फ़ज़ा फ़ज़ा में है तेरे कलाम की ख़ुशबू चमन से कुंज-ए-क़फ़स तक क़फ़स से दार तलक कहाँ कहाँ न गई तेरे नाम की ख़ुशबू मताअ'-ए-दस्त-ए-सबा हो कि नक़्श-ए-फ़र्यादी हर एक ज़ख़्म में दर्द-ए-अवाम की ख़ुशबू खनक गई है जहाँ तेरे पाँव की ज़ंजीर बिखर गई है वहाँ एहतिराम की ख़ुशबू दिल-ओ-दिमाग़ को सरशार कर गई 'मैकश' ग़ज़ल के फूल से निकली वो जाम की ख़ुशबू